सोमवार, 29 अगस्त 2016

भोजन हमेशा अपने शरीर की प्रकृति और मौसम के हिसाब से करें !

आज के समय में हमें यह पता नहीं होता कि हमारा शरीर किस प्रकृति का है या हमारे शरीर में किस प्रकृति की प्रधानता है। वात-पित्त-कफ में से हमारे शरीर में असंतुलन किस प्रकार का है,  बिना यह जाने हम भोजन करते हैं और वह भोजन हमारे शरीर की प्रकृति के विरुद्ध होता है जिससे हम रोगों को बढ़ावा देते हैं। जैसे यदि हमारे शरीर में पित्त बिगड़ा है तो पेट से सम्बंधित रोग होंगे । लेकिन हम जो भोजन करते हैं  वह पित्त बढ़ाने वाला होता है जो रोगों को और अधिक बढ़ावा देता है।

पित्त प्रकृति वालों को पित्त शान्त करने वाला या वात बढ़ाने वाला भोजन करना चाहिये जिससे पेट के सभी रोगों को आसानी से ठीक किया जा सके। जिसके शरीर में वात बढ़ा हुआ है उसे पित्त बढ़ाने वाला भोजन करना चाहिये ताकि वात को कम किया जा सके।

वात,पित्त और काफ

इसी प्रकार जिन लोगों का कफ प्रधान होता है उन्हें पित्त बढ़ाने वाला भोजन करना चाहिये और ठण्डी प्रकृति के पदार्थ से बचना चाहिए। सर्दियों में पित्त बढ़ाने वाला भोजन करना चाहिये जिससे जठराग्नि तीव्र रहे और भोजन का पाचन अच्छे से हो, सर्दियों में ठंडी प्रकृति वाला भोजन नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार ग्रीष्म काल में पित्त की अधिकता रहती है इसलिये हल्का सुपाच्य भोजन लेना चाहिए और वर्षा ऋतुमें जठरागिन मंद होती है इसलिये गर्म पानी और हल्का सुपाच्य भोजन ही लेना चाहिए।

वृद्धावस्था में वायु का प्रकोप अधिक रहता है, युवावस्था में पित्त की अधिकता रहती है और बचपन में कफ की प्रधानता रहती है। इसी प्रकार सुबह कफ का प्रभाव अधिक होता है इसलिए प्राय: सभी को कफ की समस्या रहती है। दोपहर में पित्त का प्रभाव अधिक होता है इसलिए बचपन जल्दी करना चाहिए और शाम को वायु का प्रभाव अधिक होता है। इसलिए उम्र के प्रत्येक पड़ाव के लिए खान-पान की पद्धति उसी प्रकार की होनी चाहिए। बचपन में कफ अधिक बनता है यह अच्छी बात है क्योंकि बच्चे कफ से ही बड़े होते हैं लेकिन अधिक कफ बने तो भी समस्या है, इसलिए बच्चे मीठा अधिक खाते हैं क्योंकि वह कफ दूर करता है। युवावस्था में पित्त अधिक बनता है इसलिए कुछ भी खालें उसका पाचन आसानी से हो जाता है, लेकिन पित्त अगर मात्रा से अधिक बनता है तो सावधान रहना पड़ेगा और वृद्धावस्था में वायु अधिक होने के कारण हल्का और सुपाच्य भोजन ही करें।


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