शनिवार, 27 अगस्त 2016

किसानो कि स्थिति अंग्रेजों के समय और आज के समय मे तुलना

इस देश में हिंसक व्यवस्थाओं के कारण भारत का किसान बर्बाद हुआ और भारत की खेती बर्बाद होती चली गर्इ और तकलीफ हमारी यह है कि जिस तरह से अंग्रेजों की सरकार ने भारत की खेती को बर्बाद किया था। जिन नीतियों के कारण भारत के किसान को बर्बाद किया गया था। जिन नीतियों और जिन कानूनों के चलते भारत के किसान की बर्बादी आयी थी। भारत की खेती बर्बाद हुर्इ थी। वो सारी की सारी नीतियां वो सारे के सारे कानून आज भी चल रहे हैं। उदाहरण के लिए जो 'लेण्ड एक्यूजीशनस एक्ट अंग्रेजों ने बनाया वो आज आजादी के पचास साल के बाद भी चलता। जो 'इंडियन फारेस्ट एक्ट अंग्रेजों ने बनाया था वो आज आजादी के पचास साल के बाद भी चलता है। जो कानून अंगे्रजों ने बनाया किसानों के पैदा किये हुए अनाज का दाम तय करने के लिए वो कानून इस देश में आज भी चलता है। बस फरक इतना है कि पहले गोरे अंग्रेज उस कानून को चलाते थे। अब काले अंग्रेज उस कानून को चलाते है और आज भी इस देश में ठीक उसी तरह से किसानों की जमीनें छीनी जाती हैं। जिस तरीके से अंग्रेजों के जमाने में छीनी जाती थीं। 


अंग्रेजों के जमाने में जमीन कैसे छीनी जाती थी। एक कलेक्टर नाम का आफीसर अंग्रेजों ने बनाया। सन 1860 में एक कानून बनाया अंग्रेजों ने 'इंडियन सिविल सर्विसेस एक्ट और इस 'इंडियन सिविल सर्विसेस एक्ट के नाम पर कलेक्टर नाम की पोस्ट बनवायी और उस कलेक्टर को यह अधिकार दिया गया कि वो गाँव-गाँव के किसानों को मार-पीट कर, उनके ऊपर अत्याचार करके, रेवेन्यू वसूले, लगान वसूले गाँव-गाँव में कलेक्टर क्या करता था कि जब किसान लगान नहीं दे पाता था तो उसकी जमीन सीज कर लेता था। उसकी संपत्ति सीज कर लेता था। उसके लिए एक नोटिस जाता था किसान को और उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती थी।


तो जिस तरह से संपत्ति जब्त कर ली जाती थी। किसान की और उनकी जमीन छीन ली जाती थी।   ठीक उसी तरह से आज भी इस देश में होता है। अब क्या होता है। कलेक्टर कभी नोटिस देता है। गाँव के किसान की जमीन छीन ली जाती है। वो किसान को यह अधिकार भी नहीं होता है कि वह अपनी जमीन के बारे में कहीं कोर्इ केस लड़ सके। जिरह कर सके। क्योंकि कानून ऐसा है अंग्रेजों के जमाने का बनाया हुआ कि सरकार इमरजेंसी बताकर किसी भी गाँव के किसी भी किसान की कोर्इ भी जमीन छीन सकती है। मान लीजीए सरकार को किसी भी जमीन पर कारखाना बनवाना है और गाँव का किसान वो जमीन देना नहीं चाहता तो सरकार जबरदस्ती नोटिस इश्यु करवाएगी कलेक्टर के माध्यम से तो गाँव किसान की वो जमीन छीन ली जाएगी। फिर गाँव के किसान को मजबूरी में कुछ औना-पौना दाम देकर जमीन सरकार के नाम लिखवा ली जायेगी। जिस तरह का अत्याचारी कानून अंग्रेज चलाते थे। वो ही आज भी चल रहा है और हिन्दुस्तान के किसानों की हजारों एकड़ जमीन हर साल छीनी जाती है।


पहले हिन्दुस्तान में किसानों की जमीन छीनी जाती थी अंग्रेजों के लिए, अंग्रेजीं कम्पनियों के लिए। अब इस देश के किसानों की जमीन छीनी जाती है बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए, देशी कम्पनियों के लिए, विदेशी कम्पनियों के लिए। पिछले 7-8 वषो से हमारे देश में जो उदारीकरण की नीतियां चल रही हैं, जागतीकरण की नीतियां चल रही है। उन नीतियों के कारण हजारों एकड़ जमीन महाराष्ट्र के किसानों की छीनी गर्इ। हजारों एकड़ जमीन उत्तर प्रदेश के किसानो की छीनी गर्इ, हजारों एकड़ की जमीन तामिलनाडू, कर्नाटक, गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि के किसानो की छीनी गर्इ है। हर साल हजारों एकड़ जमीन गाँव के किसानो से छीन-छीन कर परदेशी कम्पनियों को बेच दी जाती है और उस जमीन पर परदेशी कम्पनियों के बड़े-बड़े कारखाने लगाये जाते हैं। जिस जमीन पर धान पैदा होता था, गेहूँ पैदा होता था। अब उस जमीन पर कारखाना चलता है। सरकार क्या बोलती है। वो कहती है - औधोगीकरण हो रहा है। इण्डस्ट्रीयलार्इजेशन हो रहा है। वो लोग बोलते हैं  कि यह फायदे का काम हो रहा है जो इंडस्ट्रीज बन रही है।


आप जानते हैं दुनिया में और हमारे देश में कोर्इ भी ऐसी इंडस्ट्रीज नहीं है। जिसमें सौ रुपया लागत के रुप में अगर लगाया जाए तो सौ ही रुपया का उत्पादन होगा। हर फक्टरी में लागत ज्यादा होती है उत्पादन कम होता है। और भारत सरकार और भारत सरकार के नीति बनाने वाले लोग किस तरह की बेवकुफ नीतियां बनाते है कि वो इंडस्ट्रीज को महत्वपूर्ण मानते हैं और खेती को उससे कम मानते हैं ।  मेरी मान्यता यह है कि खेती से बड़ी इंडस्ट्रीज पूरी दूनिया में कोर्इ नहीं है। खेती से बड़ा उधोग पूरी दूनिया में कोर्इ नहीं। आप पूँछेगें वो कैसे? किसान एक गेहूँ का बीज डालता है और उस एक गेहूँ के बीज डालने के बाद कम से कम 50-60 गेहूँ के दाने लगते हैं। तो एक गेहूँ का बीज डाला और उसमें से 50-60 गेहूँ के बीज पैदा हुए। यह बतार्इए, ऐसा कारखाना आपने दुनिया में कहीं देखा है। इतना जबरदस्त पूंजी का निर्माण जिस कारखाने में हो सके ऐसा कारखाना कहीं आपने देखा है। मैंने तो जितने कारखाने देखे जीवन में, वहाँ सौ रुपया डालते हैं तो सत्तर रुपये का उत्पादन मिलता है। सौ रुपया डालते हैं तो अस्सी रुपये का उत्पादन मिलता है। सौ रुपया डालते हैं तो पचास रुपये का उत्पादन मिलता है। माने जितनी लागत होती है। उससे 50 टक्का, 60 टक्का ही उत्पादन मिलता है। लेकिन खेती ऐसा उत्पादन है जिसमें आप एक रुपये का सामान डालिए सौ रुपये का सामान मिलता है।


तो इतना बड़ा उधोग है जिसका सत्यानाश अंग्रेजों ने किया था। अब वहीं सत्यानाश भारत की  सरकार कर रही है। और आज भी इस देश मे वैसी ही नीतियां चलार्इ जा रही हैं जो अंगे्रेजों के जमाने में चलार्इ जा रही थी। अंग्रेजों के जमाने में किसान अपने अनाजों का दाम तय नहीं कर पाता था। आज आजादी के पचास साल के बाद भी किसान अपने अनाज का दाम तय नहीं कर पाता  इस देश में। सिर्फ किसान ही एक ऐसा वर्ग है जो अपने द्वारा खेत में पैदा किए गए किसी भी सामान का दाम खुद नहीं तय कर पाता। जितने भी कारखाने चलते हैं इस देश में, जितने भी उधोग चलते हैं पूरे देश में। हर उधोग और हर कारखाना चलाने वाला आदमी अपने द्वारा पैदा की गर्इ हर वस्तु का दाम खुद तय करता है। लेकिन किसान ही एक वर्ग है इस देश में, कास्तकार ही एक ऐसा वर्ग है इस देश में जो अपने द्वारा पैदा किये गए गेहूँ का दाम तय नहीं कर पाता। अपने द्वारा पैदा किये गये बाजरे का दाम तय नहीं कर पाता। अपने द्वारा पैदा किये गये धान का दाम तय नहीं कर पाता। अपने द्वारा पैदा किये गये मक्के का दाम तय नहीं कर पाता। कुछ भी चीज पैदा करता है किसान, उसका दाम वो खुद तय नहीं कर पाता। सरकार तय करती है। जिस तरह से अंग्रेजों की सरकार करती थी वो काम आज भी हो रहा है। 


इसी तरह से अंग्रेजों की सरकार ने भारत के किसानों पर पाबंदी लगा रखी थी कि किसान एक जिले का माल दूसरे जिले में नहीं ले जायेगा। वैसी ही पाबंदी आज भी है। एक प्रदेश का पैदा किया हुआ अनाज दूसरे प्रदेश में नहीं जाता। उस पर पाबंदी लाग रखी है सरकार ने। जिस तरह से अंग्रेजों की सरकार किसानों के ऊपर लगान वसूलती थी। टक्स वसूलती थी। अब उस तरह की चर्चा इस देश में फिर शुरु हो गर्इ है। 
    
    आजादी के पचास साल के बाद खेती पर तो लगान कुछ कम कर दिए सरकार ने। लेकिन प्दकपतमबज  तरीके से, अप्रत्यक्ष तरीके से किसानों की जेब काटना शुरु कर दिया सरकार ने। और किसानो की जेब कैसे काटती है सरकार। अगर किसान कपास की खेती करता है और एक किवन्टल कपास पैदा करने में उसका दो हजार रुपया खर्च होता है तो एक किवन्टल कपास जब बेचने जाएगा किसान तो सरकार कहेगी 1800 रुपये दाम ले लो। 1900 रुपये दाम ले लो। बहुत अधिक आप सरकार के साथ झगड़ा करेंगे तो 2000 रुपये किवन्टल का दाम देने को तैयार हो जायेगी। माने जिस कीमत पर आपकी कपास की फसल लग रही है वो ही कीमत आपको मिलेगी। मुनाफा कुछ नहीं होने देगी आपको। तो आपकी जेब ही काट रहे हैं ना या तो टक्स लगाकर आपकी जेब काटे या तो लगान वसुल कर आपकी जेब काटे या फिर आपके ऊपर पाबंदी लगाकर आपके दाम तय करने की नीति सरकार अपने हाथ में ले ले और आपको मुनाफा नहीं होने दे।  तो यह एक तरह का टक्स ही है।


किसानों के लिए और दूसरा तरीका क्या अपनाया हुआ है सरकार ने कि किसान जो कुछ पैदा करता है और जब बाजार में बेचने जाता है तो उसकी कीमत नहीं मिलती उसका दाम उसको नहीं मिलता। और उसके विपरीत किसान जो कुछ बाजार से खरीदता है उसकी कीमतें लगातार बढ़़ती चली जाती हैं। अपनी खेती में डालने के लिए फर्टीलायजर लेता है खाद लेता है, अपनी खेती में डालने के लिए कीटनाशक लेता है। अपनी खेती में डालने के लिए बीज लेता है। अपनी खेती में डालने के लिए और कोर्इ चीज इस्तेमाल करनी हो किसान को जो बाजार से खरीदनी पडे़। तो उन सबके दाम तो बढ़़ते चले जाते हैं। सौ प्रतिशत दाम बढ़ जायेगा। दो सौ प्रतिशत दाम बढ़़ जायेगा। तीन सौ प्रतिशत दाम बढ़़ जायेगा। चार सौ प्रतिशत दाम बढ़ जायेगा। पाँच सौ प्रतिशत दाम बढ़ेगा। लेकिन जो किसान बाजार में बेचने के लिए जायेगा कोर्इ चीज तो उसका दाम नहीं बढ़़ता। तो हमेशा खेती घाटे का सौदा रहती है। खेती में जो लगाते हैं वो निकलता नहीं और खेती में जितना लगाते है जब निकलता नहीं है तो किसान की खेती घाटे में आ जाती है और जब घाटे की खेती करना किसान शुरु करता है तो कर्जदार होता है। कर्इ-कर्इ से कर्ज लेता है या साहूकार से या बैंको से ले और कर्जदार हो जाता है। तो उसकी हालत और भी दयनीय हो जाती है।


इस देश में ऐसे नियम और ऐसी व्यवस्थाएं चलार्इ गयी हैं। और कर्जा लेकर जब किसान खेती करता है तो उसके क्या नतीजे निकलते है। पिछले साल आंध्रप्रदेश के 100 किसानों ने आत्महत्या की थी वो सबसे बड़ा उदाहरण है इस देश के सामने। 100 किसानों ने बैंक से कर्जा लेकर कपास की फसल लगायी थी आंध्रप्रदेश में।  उस कपास की फसल पर कीड़ा लग गया और कपास की फसल पर जब कीड़ा लग गया तो कीड़े को मारने के लिए किसान दवा लेके आये और दवा अंग्रेजी कंपनी की थी। परदेशी कंपनी की थी। उस दवा को उन्होंने खेत में छिड़का। उस दवा पर जितने निर्देश लिखे हुए थे सब अंग्रेजी में थे। किसान अंग्रेजी पढ़ना जानते नहीं तो दवा उन्होंने छिड़क दी खेत में। तो जो कपास की फसल बची हुर्इ थी वो भी पूरी तरह से चौपट हो गर्इ। तो किसानों के पास कुछ नहीं बचा। वो बैंकों से कर्जे के रुप में लिया था उसे वापस कर सके। बैंक वाले आए अपना कर्जा मांगने के लिए। किसानों के पास कुछ नहीं था देने के लिए। तो किसानों ने क्या किया जो कपास की फसल पर कीड़ा मारने की दवा लेकर आये थे वहीं दवा उन्होंने खुद पी और सब के सब मर गए। ऐसे किसान आत्महत्या करते है। 


हिन्दुस्तान में पैंतालीस करोड़ छोटे किसान हैं जिनके पास दो बीघा की जमीन है। तीन बीघा की जमीन है। पाच बीघा की जमीन है। एैसे पैंतालीस करोड़ किसान हैं। जरा उनकी आप कल्पना तो करिए कि पैतालीस करोड़ किसान आज की परिस्थितियों में किस तरह से खेती करते होगे और किस तरह से कर्जदार बनते होंगे। और इस देश में कभी-कभी क्या होता है। गाँव का किसान कोर्इ कर्ज ले लेता है। कर्ज चूकाने की स्थिति में नहीं होता और कभी-कभी वो कर्ज माफ कर दिया जाए तो पूरे देश में हंगामा हो जाता है। और हर साल हजारों करोड़ों रुपये का माफ किया जाता है पैसा बड़े-बड़े उधोगों पर, बड़ी-बड़ी इंडस्ट्रीज पर, इंडस्ट्रीज बैठ जाती हैं, उधोग बैठे जाते हैं। उनके पैसे डूब जाते हैं और  वाले कुछ नहीं कर पाते। और जब किसान के कर्जे की माफी की बात आती है तो हंगामा करते हैं।


पूरे देश में ऐसी व्यवस्था आज भी चल रही है। इस देश में किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं। उनकी पैदा की गर्इ फसल के दाम तय करने का अधिकार उनको नहीं मिल पाया है। जो कुछ खेत में लगाने के लिए बाजार से खरीदते है। उन सबके दाम बढ़ते चले जा रहे हैं। किसान जो कुछ पैदा करता है उसका उसको दाम नहीं मिल पा रहा है। बिजली का दाम बढ़़ा दिया। पानी का दाम बढ़़ा दिया। खाद का दाम बढ़़ा दिया। जो सब्सिडी मिल सकती थी थोडी बहुत किसानों को गैट करार के बाद वो भी पूरी तरह से खत्म होती चली जा रही है। इस तरह से लगातार बर्बादी के रास्ते पर ही है। जिस तरह से बर्बादी अंग्रेजों के जमाने में किसानों की आयी थी। वो ही बर्बादी आजादी के पचास साल के बाद भी है और इन बर्बादियों को बढ़ाने के लिए कुछ नये-नये कानून बनाए जा रहे है। जैसे अंग्रेजों की सरकार नये-नये कानून बनाती थी किसानों को बर्बाद करने के लिए। वैसे ही अब नये-नये कानून फिर किसानों को बर्बाद कराने के लिए बनाये जा रहे हैं।

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